क्या इंदिरा गांधी के लिए भी सिरदर्द साबित हो रहे थे संजय गांधी?
वैभव नरेश
- 23 Jun 2025, 02:15 PM
- Updated: 02:15 PM
नयी दिल्ली, 22 जून (भाषा) आपातकाल के दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के प्रधान सचिव के रूप में काम करने वाले पी एन धर ने अपने अनुभवों को साझा करते हुए लिखी एक किताब में इंदिरा और उनके बेटे संजय गांधी के रिश्तों पर रोशनी डाली है।
धर ने अपनी पुस्तक ‘इंदिरा गांधी, द इमरजेंसी एंड इंडियन डेमोक्रेसी’ में लिखा है कि उन दिनों पीएमएच (प्रधानमंत्री आवास) ‘असंवैधानिक’ गतिविधियों का अड्डा बन गया था जहां कांग्रेस के पदानुक्रम में कनिष्ठ रहे लेकिन प्रधानमंत्री के करीब नेताओं और उनके बेटे के वफादार पार्टी पदाधिकारियों के एक समूह ने पीएमएस (प्रधानमंत्री सचिवालय) को कमजोर कर दिया।
उन्होंने किताब में लिखा है कि पीएमएस में केंद्रीकृत शक्तियों की आलोचना करते हुए, मोरारजी देसाई ने इसका नामकरण पुन: प्रधानमंत्री कार्यालय के रूप में किया था।
पुस्तक में दावा किया गया है कि संजय गांधी और हरियाणा के नेता बंसी लाल जैसे उनके वफादारों ने उस अवधि में कांग्रेस में वर्चस्व हासिल किया। यहां तक कि प्रधानमंत्री भी संविधान में व्यापक परिवर्तन के लिए संविधान सभा के गठन के समर्थन में राज्य विधानसभाओं से प्रस्ताव पारित करवाने के उनके कदम से चिंतित थीं।
संजय गांधी के प्रति इंदिरा के बेइंतहा पुत्र मोह से अवगत रहे धर ने 2000 में प्रकाशित पुस्तक में लिखा कि वह इसे आमतौर पर अस्थायी खीझ भर मान लेते।
उन्होंने लिखा, ‘‘लेकिन इस बार यह एक क्षणिक मनोदशा से अधिक था। मुझे पता था कि उन्होंने कितनी सावधानी से संजय को संवैधानिक सुधारों पर सभी चर्चाओं से दूर रखा था। मुझे यह भी पता था कि उन्हें तीन विधानसभाओं द्वारा उनकी जानकारी के बिना, लेकिन संजय की स्वीकृति के साथ संविधान सभा संबंधी प्रस्तावों को पारित करने पर कितनी नाराजगी थी। क्या संजय उनके लिए भी सिरदर्द साबित हो रहे थे?’’
धर ने कहा कि संविधान सभा का मुख्य उद्देश्य आपातकाल को जारी रखना और चुनाव स्थगित करना प्रतीत हो रहा था। बंसीलाल ने धर से कहा था कि इसका उद्देश्य ‘बहन जी’ (इंदिरा गांधी) को आजीवन राष्ट्रपति बनाना है।
पुस्तक के अनुसार जब आपातकाल हटाए जाने के बाद मार्च 1977 के चुनावों में कांग्रेस को करारी हार का सामना करना पड़ा, तो दिल्ली के सत्ता के गलियारों में कानाफूसी शुरू हो गई जहां इंदिरा गांधी के कथित अपराधों और जनता पार्टी की योजनाओं की कहानियां गूंज रही थीं। इस चुनाव में जनता पार्टी ने बहुमत हासिल किया था और ऐसी अफवाहें थीं कि अब वह इंदिरा गांधी और संजय गांधी को खत्म कर देगी।
धर ने लिखा कि इंदिरा गांधी, संजय गांधी के बारे में अधिक चिंतित थी और खुद को अपने परिवार में अलग-थलग पा रही थीं।
धर लिखते हैं, ‘‘राजीव को अपने भाई के लिए कोई सहानुभूति नहीं थी। वह अपनी मां के बारे में बहुत चिंता के साथ और अपने भाई के खिलाफ गुस्से से भरे हुए मुझसे मिलने आए थे। उन्होंने कहा कि वह अपने भाई की कारगुजारियों को असहाय होकर देखते रहे।’’
उन्होंने कहा, ‘‘इंदिरा गांधी अकेली पड़ गई थीं। अपने सबसे बड़े राजनीतिक संकट के समय, उन्होंने अपने छोटे बेटे संजय को छोड़कर बाकी किसी पर भरोसा नहीं किया।’’
धर ने कहा कि संजय गांधी अपनी मां के उन सहयोगियों और सहायकों को नापसंद करते थे, जिन्होंने उनकी मारुति कार परियोजना का विरोध किया था या उन्हें गंभीरता से नहीं लिया था।
धर ने कहा, "संजय जानते थे कि अगर उनकी मां उनकी रक्षा करने के लिए आसपास नहीं होगी तो वह गंभीर संकट में पड़ जाएंगे। बचपन की अपनी सभी असुरक्षाओं के लिए इंदिरा गांधी ने अपने बेटों, खासकर संजय को जरूरत से ज्यादा लाड़ प्यार के साथ भरपाई करने की कोशिश की थी, बल्कि यह कहना चाहिए कि जरूरत से ज्यादा भरपाई की थी। वह उनकी कमियों पर आंखें मूंद लेती थीं। उन्होंने जो फैसला लिया था उसमें संजय गांधी के भविष्य की चिंता भी एक कारण थी।’’
आपातकाल के दौरान उनकी सहयोगी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने जेपी के आंदोलन को अमेरिका द्वारा समर्थित एक फासीवादी आंदोलन करार दिया था। इंदिरा ने यह बात स्वीकार कर ली और अपने शासन को जारी रखने के लिए लोकतंत्र को रौंदने, विपक्षी नेताओं को जेल में डालने और प्रेस पर सेंसरशिप लगाने का फैसला किया।
धर ने इंदिरा गांधी को एक रिपोर्ट दिखाई जिसमें बताया गया था कि नसबंदी कोटा पूरा न करने पर स्कूल शिक्षकों के एक समूह पर "अत्यधिक दबाव" डाला गया था। यह संजय गांधी के पांच सूत्रीय कार्यक्रमों में से एक था, जो उनकी सरकार के 20 सूत्रीय कार्यक्रम से अलग था।
उन्होंने कहा, "रिपोर्ट पढ़ने के बाद वह चुप हो गईं। यह पहली बार था जब उन्होंने ऐसे आरोपों को झूठा कहकर खारिज नहीं किया, जैसा कि उनकी आदत बन गई थी। काफी देर तक चुप रहने के बाद उन्होंने थकी हुई आवाज में मुझसे पूछा कि मुझे क्या लगता है कि आपातकाल कब तक जारी रहना चाहिए।"
धर लिखते हैं कि पार्टी के कुछ नेताओं ने चुनाव कराने के विचार का समर्थन किया, भले ही उनको लगता था कि उनकी पार्टी हार जाएगी।
उन्होंने कहा, "वे संजय और उनके साथियों से इतने परेशान हो चुके थे कि उन्होंने उनकी मां को चुनाव के नतीजों के विपरीत कुछ भी कहने में संकोच नहीं किया।"
धर ने लिखा कि उन्होंने 1 जनवरी 1977 को तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त को घर पर चाय पर आमंत्रित किया और चुनाव कराने के लिए उन्हें विश्वास में लिया।
प्रसन्न सीईसी ने शाम को उन्हें व्हिस्की की एक बोतल भेजी। 18 जनवरी, 1977 को इंदिरा गांधी ने घोषणा की कि लोकसभा भंग कर दी गई है और दो महीने बाद नए चुनाव होंगे, जिससे विपक्ष, जनता और प्रेस स्तब्ध रह गए।
भाषा वैभव