न्यायालय ने निर्वाचन आयोग को बिहार में मतदाता सूचियों का पुनरीक्षण जारी रखने की अनुमति दी
शफीक पवनेश
- 10 Jul 2025, 10:45 PM
- Updated: 10:45 PM
नयी दिल्ली, 10 जुलाई (भाषा) उच्चतम न्यायालय ने बृहस्पतिवार को चुनाव आयोग से कहा कि बिहार में चल रहे मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) के दौरान आधार, मतदाता पहचान पत्र और राशन कार्ड को वैध दस्तावेज के रूप में स्वीकार करने पर विचार किया जाए। राज्य में इस वर्ष के अंत में विधानसभा चुनाव होने हैं।
एसआईआर को ‘‘संवैधानिक दायित्व’’ बताते हुए न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया और न्यायमूर्ति जॉयमाल्या बागची ने निर्वाचन आयोग की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता राकेश द्विवेदी की दलीलें सुनीं और आयोग को सात करोड़ से अधिक मतदाताओं वाले बिहार में एसआईआर जारी रखने की अनुमति दे दी।
पीठ ने मतदान के अधिकार को एक लोकतांत्रिक देश में महत्वपूर्ण अधिकार करार देते हुए कहा, ''हम किसी संवैधानिक संस्था को वह करने से नहीं रोक सकते जो उसका कर्तव्य है। साथ ही, हम उसे वह करने भी नहीं देंगे जो उसका कर्तव्य नहीं है।''
पीठ ने अपने आदेश में कहा, ‘‘दोनों पक्षों को सुनने के बाद, हमारी राय है कि इस मामले में तीन प्रश्न शामिल हैं। पहला ये कि निर्वाचन आयोग की यह प्रक्रिया करने की शक्तियां, दूसरा ये कि वह तरीका जिससे यह प्रक्रिया की जा रही है, और तीसरा ये कि समय, जिसमें मसौदा मतदाता सूची तैयार करने, आपत्तियां मांगने और अंतिम मतदाता सूची बनाने आदि के लिए दिया गया समय शामिल है, जो इस तथ्य को देखते हुए बहुत कम है कि बिहार चुनाव नवंबर 2025 में होने वाले हैं।’’
मामले में सुनवाई की आवश्यकता को रेखांकित करते हुए पीठ ने इस अभियान को चुनौती देने वाली 10 से अधिक याचिकाओं पर सुनवाई के लिए 28 जुलाई की तारीख तय की है।
पीठ ने निर्वाचन आयोग को एक सप्ताह के भीतर अपना जवाब दाखिल करने का निर्देश दिया गया, जिसके एक सप्ताह बाद याचिकाकर्ताओं की ओर से प्रत्युत्तर दाखिल किया जा सकेगा।
पीठ ने आयोग के इस कथन को रिकॉर्ड में लिया कि एसआईआर के लिए जिन 11 दस्तावेजों पर विचार करना था, उनकी सूची संपूर्ण नहीं थी।
पीठ ने आदेश दिया, ‘‘इसलिए, हमारे विचार से, चूंकि यह सूची संपूर्ण नहीं है, इसलिए न्याय के हित में होगा यदि निर्वाचन आयोग आधार कार्ड, मतदाता पहचान पत्र और राशन कार्ड जैसे तीन दस्तावेज पर भी विचार करे।’’
हालांकि, आयोग की ओर से पेश द्विवेदी और वरिष्ठ अधिवक्ताओं के. के. वेणुगोपाल और मनिंदर सिंह ने आदेश के इस हिस्से पर आपत्ति जताई।
न्यायमूर्ति धूलिया ने टिप्पणी की, ‘‘हम यह नहीं कह रहे कि आपको ऐसा करना ही होगा है। यह आप पर निर्भर है कि आप विचार करें या नहीं। हमें यह मामला सही प्रतीत होता है। अगर आपके पास खारिज करने का ठोस कारण है, तो खारिज करें, लेकिन कारण भी बताएं।’’
पीठ ने चुनाव आयोग के एसआईआर को रोका नहीं क्योंकि याचिकाकर्ताओं ने फिलहाल इसका अनुरोध नहीं किया था।
गैर-सरकारी संगठन ‘एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स’ की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता गोपाल शंकरनारायणन ने एसआईआर कराने के आयोग के फैसले के कानूनी आधार को चुनौती दी। उन्होंने दलील दी कि एसआईआर को जनप्रतिनिधित्व अधिनियम या उसके नियमों के तहत मान्यता प्राप्त नहीं है।
उन्होंने एसआईआर को एक ‘‘अभूतपूर्व, मनमानी प्रक्रिया’’ बताया जो 2003 के बाद नामांकित लोगों को निशाना बना रही है।
शंकरनारायणन ने आधार और मतदाता पहचान पत्र जैसे व्यापक रूप से प्रचलित दस्तावेजों को निर्वाचन आयोग की सूची से बाहर रखे जाने पर भी सवाल उठाया और कहा कि इन्हें मौजूदा चुनावी नियमों के तहत मान्यता प्राप्त है और कई सार्वजनिक सेवा क्षेत्रों में इन पर भरोसा किया जाता है।
पीठ ने कहा कि चुनाव आयोग का यह कदम संवैधानिक रूप से मान्य प्रतीत होता है, लेकिन इसके समय और क्रियान्वयन को लेकर चिंता जताई गई।
पीठ ने आरपी अधिनियम की धारा 21(3) का भी हवाला दिया, जो चुनाव आयोग को विशेष पुनरीक्षण ''अपने विवेकानुसार जिस भी तरीके से सही समझे'' करने की अनुमति देती है, जिससे आयोग की विवेकाधिकारिता को बल मिलता है।
वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल, अभिषेक मनु सिंघवी, शादान फरासत, वृंदा ग्रोवर और अन्य ने निर्वाचन आयोग के दृष्टिकोण को ‘‘बहिष्कार करने वाला और गरीबों पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाला’’ बताया।
सिब्बल ने बिहार सरकार के आंकड़ों का हवाला देते हुए कहा कि आबादी के केवल एक छोटे से हिस्से के पास ही आयोग द्वारा स्वीकार्य माने जाने वाले दस्तावेज हैं, जिनमें से केवल 2.5 प्रतिशत के पास पासपोर्ट और 15 प्रतिशत से कम के पास मैट्रिक प्रमाणपत्र हैं।
ग्रोवर ने कहा कि यह प्रक्रिया "समावेशी होने के बजाय बाहर करने वाली है," जबकि सिंघवी ने जोर दिया कि एक भी योग्य मतदाता को मतदान के अधिकार से वंचित करना लोकतांत्रिक अखंडता को कमजोर करता है और संविधान की मूल संरचना का उल्लंघन है।
द्विवेदी ने कहा कि आधार को नागरिकता के प्रमाण के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता, और किसी की पात्रता की पुष्टि करना चुनाव आयोग की जिम्मेदारी है, जो संविधान के अनुच्छेद 326 के तहत आता है।
पीठ ने बिहार में मतदाता सूचियों के विशेष गहन पुनरीक्षण में दस्तावेजों की सूची में आधार कार्ड पर विचार न करने को लेकर सवाल किया और कहा कि निर्वाचन आयोग का किसी व्यक्ति की नागरिकता से कोई लेना-देना नहीं है और यह गृह मंत्रालय के अधिकार क्षेत्र में आता है।
सुनवाई के दौरान पीठ ने पुनरीक्षण की समय-सीमा पर आपत्ति जताते हुए पूछा, 'चुनाव से ठीक कुछ महीने पहले ही यह प्रक्रिया क्यों शुरू की गई, जब इसे काफी पहले भी शुरू किया जा सकता था?'
पीठ ने आगे कहा, ''अगर आप बिहार में एसआईआर के तहत नागरिकता की जांच करना चाहते थे, तो यह काम पहले शुरू करना चाहिए था। अब यह कुछ देर से किया जा रहा है।''
निर्वाचन आयोग ने उच्चतम न्यायालय से एसआईआर प्रक्रिया जारी रखने की अनुमति मांगी और आश्वस्त किया कि जब तक अदालत कोई निर्णय नहीं लेती, अंतिम मतदाता सूची प्रकाशित नहीं की जाएगी।
द्विवेदी ने कहा कि याचिकाकर्ता वास्तविक मतदाताओं का प्रतिनिधित्व नहीं कर रहे, बल्कि वे कार्यकर्ता और कानून से जुड़े पेशेवर हैं।
पीठ ने कहा कि प्रक्रिया का समय संदेह पैदा कर रहा है और टिप्पणी की, ''हम आपकी नीयत पर शक नहीं कर रहे हैं, लेकिन धारणाएं बन रही हैं। हम इसे रोकने पर विचार नहीं कर रहे क्योंकि यह एक संवैधानिक दायित्व है।''
द्विवेदी ने कहा कि 60 प्रतिशत मतदाताओं ने अपने पहचान-पत्र सत्यापित कर लिए हैं तथा उन्होंने अदालत को आश्वासन दिया कि बिना सुनवाई के किसी भी मतदाता का नाम मतदाता सूची से नहीं हटाया जाएगा।
इससे पहले पीठ ने कहा था कि यह अभियान "लोकतंत्र की जड़ और मतदान के अधिकार" से जुड़ा हुआ है। उसने यह तर्क खारिज कर दिया कि निर्वाचन आयोग के पास इसे संचालित करने का कोई अधिकार नहीं है।
पीठ ने इस बीच याचिकाकर्ताओं के वकील की यह दलील खारिज कर दी कि चुनाव आयोग के पास बिहार में ऐसी कोई प्रक्रिया चलाने का अधिकार नहीं है। अदालत ने कहा कि यह कार्य संविधान द्वारा अनुमोदित है और पिछली बार ऐसी प्रक्रिया 2003 में की गई थी।
भाषा
शफीक