राजस्थान: भारत-जर्मन तकनीक से माउंट आबू में स्थापित किया गया विशाल सौर ऊर्जा संयंत्र
पृथ्वी जितेंद्र
- 21 Jul 2025, 05:03 PM
- Updated: 05:03 PM
जयपुर, 21 जुलाई (भाषा) राजस्थान में पर्यावरण संरक्षण और प्रदूषण को कम करने की दिशा में एक कदम आगे बढ़ाते हुए सरकार ने माउंट आबू पर एक सौर ऊर्जा संयंत्र स्थापित किया है।
माउंट आबू में ब्रह्माकुमारी संस्थान के मुख्यालय शांतिवन के पास स्थापित ‘इंडिया वन सोलर थर्मल पावर प्लांट’ सौर ऊर्जा क्षेत्र में नवाचार के लिए एक नजीर बन गया है।
ऐसा दावा किया जा रहा है कि यह दुनिया का पहला सौर तापीय विद्युत संयंत्र है, जो 24 घंटे चलता है।
इस संयंत्र से उत्पन्न होने वाली ऊर्जा से संस्थान की रसोइयों में बिजली या रसोई गैस का इस्तेमाल किए बिना हर दिन 50,000 लोगों के लिए ताजा, गर्म शाकाहारी भोजन तैयार किया जाता है।
यह संयंत्र 35 एकड़ में फैला है।
एक मेगावाट क्षमता वाला यह सौर संयंत्र भारत के नवीन एवं नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय, जर्मनी के पर्यावरण एवं परमाणु सुरक्षा मंत्रालय और ‘अंजर्मन फेडरल एंटरप्राइज फॉर इंटरनेशनल कॉर्पोरेशन’ के बीच सहयोग का परिणाम है।
ब्रह्माकुमारीज के एक प्रवक्ता ने बताया, “सबसे अहम बात यह इसके (सौर संयंत्र) 90 फीसदी कलपुर्जे और उपकरण भारत में ही बने हैं। इसमें लगे सभी 770 ‘पैराबोलिक रिफलेक्टिव डिश’ को ब्रह्माकुमारीज के इंजीनियर की टीम ने बनाया है।”
उन्होंने बताया कि इस संयंत्र की कुल क्षमता एक मेगावॉट है लेकिन वर्तमान में 16 हजार यूनिट बिजली का उत्पादन किया जा रहा है।
अधिकारी ने बताया कि भविष्य में इसे पूरी क्षमता के साथ बिजली उत्पादन करने की योजना पर काम जारी है। उन्होंने बताया कि संयंत्र में कुल 770 पैराबोलिक रिफ्लेक्टर लगे हैं और एक रिफ्लेक्टर 600 वर्ग फुट का होता है।
अधिकारी ने बताया कि सूरज की किरणें रिफ्लेक्टर पर लगे कांच से टकराती हैं और रिफ्लेक्टर के पास बना ‘फिक्स फोकस बॉक्स’ फिर इन किरणों को प्राप्त करता है।
उन्होंने बताया कि इससे अंदर बने कॉइल में पानी से भाप बनती है और इसी भाप से यहां बनी रसोई में खाना बनता है।
प्रवक्ता ने बताया कि इस संयंत्र में लगे ‘थर्मल स्टोरेज’ और ‘स्टीम जनरेशन’ की मदद से रात में भी बिजली मिलती रहती है।
उन्होंने बताया, “थर्मल स्टोरेज’ में 24 घंटे तापीय ऊर्जा संग्रहित होने से इसका उपयोग रात में किया जाता है। इस तरह की तकनीक भारत में पहली बार यहां आबू रोड में उपयोग की जा रही है। कुल बिजली उत्पादन में से आठ हजार यूनिट बिजली संस्था में उपयोग हो रही है।”
इस सौर संयंत्र की शुरुआत 1990 में उस समय हुई, जब जर्मन वैज्ञानिक वोल्फगैंग सिफलर ने भारत में इस तकनीक का एक छोटा सा संस्करण पेश किया था।
प्रवक्ता ने बताया कि वे चाहते थी आदिवासी इस मॉडल के जरिए खाना बना लें और लड़कियां न जलानी पड़ें।
उन्होंने बताया कि सिफलर के मॉडल से प्रेरित होकर स्थानीय इंजीनियरों और शोधकर्ताओं ने इस अवधारणा को पूरी तरह से चालू बिजलीघर में बदला।
प्रवक्ता ने बताया कि 80 करोड़ रुपये से अधिक के निवेश और पांच वर्षों के निर्माण के बाद यह संयंत्र आज टिकाऊ और विकेन्द्रीकृत ऊर्जा उत्पादन का कार्यशील मॉडल है।
उन्होंने बताया कि दुनिया भर के शोधकर्ता और छात्र हर वर्ष इस संयंत्र के परिचालन का अध्ययन करने के लिए इस स्थल पर आते हैं।
प्रवक्ता ने बताया कि इस परियोजना को मॉड्यूलर, लागत प्रभावी और स्थानीय सामग्रियों से बना होने के लिए सराहा जाता है।
उन्होंने बताया कि आसान रखरखाव और विश्वसनीय दीर्घकालिक निष्पादन की विशेषता के कारण विशेषज्ञों का मानना है कि ऐसे संयंत्र भारत के उन हिस्सों में भी लगाए जा सकते हैं, जहां प्रचुर मात्रा में सूरज की रोशनी आती है।
अधिकारी ने बताया कि यह संयंत्र भारत की हरित ऊर्जा की ओर बढ़ने की महत्वाकांक्षा के अनुरूप होने के कारण भी महत्वपूर्ण है।
भाषा पृथ्वी