ट्रेन विस्फोट: उच्च न्यायालय ने आरोपियों के बयान पर निचली अदालत की निर्भरता को कैसे खारिज किया
पारुल नेत्रपाल
- 22 Jul 2025, 09:44 PM
- Updated: 09:44 PM
(आमिर खान)
मुंबई, 22 जुलाई (भाषा) मुंबई में जुलाई 2006 में कई लोकल ट्रेन में हुए बम धमाकों के मामले में दोषियों को निचली अदालत की ओर से सुनाई गई सजा को पलटने का बंबई उच्च न्यायालय का फैसला अभूतपूर्व है। यह दोषियों के इकबालिया बयानों की विश्वसनीयता को भी पूरी तरह से नकार देता है, जिसे निचली अदालत ने अपने फैसले में दोषसिद्धि का आधार माना था।
उच्च न्यायालय ने इकबालिया बयानों पर अभियोजन पक्ष की निर्भरता को खारिज करते हुए 2015 में दोषी ठहराए गए सभी 12 आरोपियों को सोमवार को बरी कर दिया। उसने कहा कि प्रत्येक बयान के कुछ हिस्से ‘‘एक जैसे हैं और ऐसा प्रतीत होता है कि उन्हें कॉपी किया गया है।’’ यह फैसला निचली अदालत के निर्णय के बिलकुल विपरीत है।
न्यायमूर्ति अनिल किलोर और श्याम चांडक की विशेष पीठ ने इस “चौंकाने वाले निष्कर्ष” पर टिप्पणी करते हुए कहा, ‘‘प्रत्येक इकबालिया बयान में बम धमाकों से जुड़े प्रासंगिक हिस्से की जांच के दौरान हमें यह देखकर आश्चर्य हुआ कि इन बयानों के कुछ हिस्से एक जैसे हैं और ऐसा प्रतीत होता है कि उन्हें कॉपी किया गया है।’’
इकबालिया बयानों को खारिज किए जाने का एक महत्वपूर्ण आधार यह था कि उन्हें “विभिन्न पैमानों पर सच्चा और पूर्ण नहीं पाया गया। यही नहीं, उनके कुछ अंश समान और एक-दूसरे से मेल खाते हुए पाए गए।
हालांकि, 2015 में निचली अदालत ने इकबालिया बयानों की प्रामाणिकता को बरकरार रखा था और बचाव पक्ष की ओर से रेखांकित यातना, मजिस्ट्रेट के बजाय पुलिस अधिकारी के समक्ष बयान दर्ज किए जाने और बयानों में समान गलतियों की मौजूदगी जैसे बिंदुओं को खारिज कर दिया था।
इकबालिया बयानों में समान गलतियां होने की दलील पर निचली अदालत ने टिप्पणी की थी, “केवल ऐसी समानता के आधार पर यह निष्कर्ष निकालना बेतुका होगा कि इकबालिया बयान गढ़े हुए हैं और एक ही प्राधिकारी द्वारा लिखवाए या तैयार करवाए गए हैं।”
उच्च न्यायालय के 21 जुलाई के फैसले में इकबालिया बयानों में समानता को दर्शाने वाले एक चार्ट का हवाला दिया गया और कहा गया कि यह ‘‘प्रत्येक इकबालिया बयान की प्रामाणिकता, विश्वसनीयता और सत्यता के बारे में बहुत कुछ बताता है।’’
उच्च न्यायालय ने कहा, “यह चार्ट बचाव पक्ष की इस दलील को मजबूत करता है कि इकबालिया बयान आरोपियों ने नहीं दिया, बल्कि इन पर उनसे जबरदस्ती दस्तखत करवाए गए। आरोपियों ने सत्र न्यायाधीश के समक्ष अपनी शिकायत में और अपनी गवाही में भी यह दावा किया है कि उन्होंने कोई इकबालिया बयान नहीं दिया और एटीएस अधिकारियों ने कुछ कागजों पर उनसे जबरदस्ती दस्तखत करवाए थे।”
मामले की जांच महाराष्ट्र के आतंकवाद रोधी दस्ते (एटीएस) ने की थी। 2015 में बचाव पक्ष ने दलील दी थी कि स्वीकारोक्ति न केवल दबाव में ली गई थी, बल्कि उसे गढ़ा भी गया था। उसने कहा था कि सभी आरोपियों ने नौ नवंबर 2006 को डीसीपी (पुलिस उपायुक्त) और एटीएस अधिकारियों की ओर से उन्हें यातना दिए जाने, धमकाने और जबरन हस्ताक्षर करवाए जाने की शिकायत की थी।
हालांकि, निचली अदालत ने कहा कि यह दावा “मजिस्ट्रेट या विशेष न्यायाधीश पर आरोप लगाने के अलावा कुछ नहीं है” और इसे खारिज कर दिया।
सात पुलिस उपायुक्तों ने आरोपियों के इकबालिया बयान दर्ज किए थे। हालांकि, बाद में आरोपी निचली अदालत में अपने बयानों से मुकर गए।
निचली अदालत ने इकबालिया बयान या कोरे कागज पर दस्तखत करने के लिए मजबूर करने वाली ‘‘कथित यातना की सीमा और प्रकृति’’ पर विचार करने के बाद कहा कि यह संभव नहीं है कि आरोपी “दो महीने से अधिक समय तक चुप रहेंगे, जब उन्होंने अपना बयान वापस लेने की अर्जी पेश की।”
निचली अदालत के न्यायाधीश ने कहा कि वह “इस दलील से संतुष्ट हैं कि इकबालिया बयान बाद में विचार करने या कानूनी सलाह के कारण वापस लिए गए थे।”
दूसरी ओर, उच्च न्यायालय ने एक आरोपी की स्वीकारोक्ति का हवाला देते हुए कहा कि उसके बयान को “पढ़ना और पुलिस की बर्बरता की कल्पना करना मुश्किल है” और अगर इसे वास्तविक मान लिया जाए, तो “यह निश्चित रूप से पुलिस की ओर से अपराध को जबरन स्वीकार करवाने के लिए अपनाए गए अमानवीय, बर्बर और कठोर तरीकों को दर्शाता है।”
बचाव पक्ष ने कहा कि यातना के चिकित्सीय साक्ष्य केवल कुछ आरोपियों के संबंध में उपलब्ध थे, सभी अभियुक्तों के संबंध में नहीं, लेकिन इससे उसकी यह दलील कमजोर नहीं होती कि सभी इकबालिया बयान यातना के तहत हासिल किए गए थे। उसने कहा कि यह तथ्य भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा-24 के तहत आरोपियों के इकबालिया बयान को निष्प्रभावी मानने के लिए पर्याप्त होगा।
यह धारा इकबालिया बयान को उस स्थिति में अस्वीकार्य मानने का प्रावधान करती है, जब यह “प्रलोभन, धमकी या वादे के तहत” हासिल की गई हो।
दोषियों के बयानों की पुष्टि उनके मेडिकल रिकॉर्ड से करने के बाद उच्च न्यायालय ने कहा, “अभियुक्त यह बात साबित करने में सफल रहे कि उनसे इकबालिया बयान लेने के लिए उन्हें यातनाएं दी गईं।”
उच्च न्यायालय ने कहा कि गवाहों के बयान और आरोपियों से की गई कथित बरामदगी का कोई साक्ष्य मूल्य नहीं है और इसलिए इन्हें दोषसिद्धि के लिए निर्णायक नहीं माना जा सकता।
मुंबई में कई लोकल ट्रेन में 11 जुलाई 2006 को हुए सात धमाकों में 180 से अधिक लोग मारे गए थे।
भाषा पारुल