पिछली आपदाओं से सबक नहीं ले रहीं सरकारें: विशेषज्ञ
जोहेब
- 06 Aug 2025, 07:54 PM
- Updated: 07:54 PM
देहरादून, छह अगस्त (भाषा) उत्तराखंड के पहाड़ अपनी मनमोहक सुंदरता और विविधतापूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र के लिए जाने जाते हैं लेकिन हर साल मानसून में बारिश इस खूबसूरत हिमालयी राज्य में बाढ़ और भूस्खलन जैसी आपदाओं के रूप में भारी तबाही लेकर आती है।
इसके अलावा, भूधंसाव, भूकंप, हिमस्खलन और जंगल में आग लगने की घटनाएं भी प्रदेश में व्यापक नुकसान पहुंचाती हैं।
उत्तरकाशी के धराली में आयी भीषण आपदा से पहले केवल इस मानसून सीजन में ही यमुनोत्री के सिलाईबैंड समेत विभिन्न इलाकों भूस्खलन और बादल फटने की छह से ज्यादा घटनाएं हो चुकी हैं।
उत्तराखंड आपातकालीन परिचालन केंद्र की एक रिपोर्ट के अनुसार, इस वर्ष जून से लेकर अब तक प्राकृतिक आपदाओं में कुल 33 लोगों की मौत हुई है और 24 अन्य घायल हुए हैं।
केंद्र के अनुसार इन घटनाओं में आठ लोग लापता भी हुए हैं और 510 मकान भी प्रभावित हुए।
इससे पहले, केदारनाथ और ऋषिगंगा जैसी विनाशकारी आपदाओं का कहर भी प्रदेश झेल चुका है, जिनमें क्रमश: 5000 और 205 लोगों की जान चली गयी थी संपत्तियों को भारी नुकसान पहुंचा था।
विशेषज्ञों का मानना है कि इन आपदाओं से सरकार ने कोई सबक नहीं लिया और उन्हें दूर रखने के लिए कोई दीर्घकालिक उपाय नहीं किए।
उनका कहना है कि अंग्रेजों के समय में बस्तियां या रिहाइशी इलाके ऐसी जगहों पर बनाए जाते थे, जो बरसाती नालों के रास्ते में नहीं आते थे। इस संबंध में उन्होंने मसूरी, नैनीताल, चकराता, लैंसडौन और अल्मोड़ा का उदाहरण दिया।
पर्यावरणविद अनूप नौटियाल ने मसूरी का उदाहरण देते हुए कहा कि एक छोटे से कस्बे के लिए सरकार नयी सड़क बनाने जा रही है, जिसमें एक बार फिर सैकड़ों पेड़ों की बलि दी जाएगी। इसकी कोई जरूरत ही नहीं है।
उन्होंने उत्तराखंड में वहन क्षमता के मुताबिक पर्यटन पर बल दिया और कहा कि पर्यटन गतिविधियों को नियंत्रित किया जाना चाहिए।
जब 2023 में चमोली जिले के ज्योतिर्मठ में भूधंसाव हुआ था तब शहर के निवासियों ने एनटीपीसी की 520 मेगावाट तपोवन विष्णुगाड पनबिजली परियोजना की भूमिगत हेड रेस सुरंग को जमीन में दरारों के लिए जिम्मेदार बताया था।
लेकिन आपदा के कारणों की तह में जाने की बजाय, एनटीपीसी ने कहा कि उसकी 12 किलोमीटर लंबी भूमिगत सुरंग की भूधंसाव में कोई भूमिका नहीं है। इस मामले की जांच के लिए सरकार द्वारा गठित वैज्ञानिकों की समितियों की विभिन्न रिपोर्टों में भी एनटीपीसी की इस भूमिगत सुरंग के बारे में कोई टिप्पणी नहीं की गई।
विशेषज्ञों का मानना है कि चाहे आपदा का रूप कोई भी हो, इनसे आमजन ही प्रभावित होते हैं और अत्यधिक असुरक्षित स्थानों पर रहने वाले लोग हमेशा एक डर के साए में ही जीवन जीते है ।
हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय में एक वरिष्ठ भूवैज्ञानिक डॉ एसपी सती ने कहा कि जलवायु परिवर्तन के अलावा, कई अन्य कारक भी इन आपदाओं को जन्म दे रहे हैं।
सती ने कहा, “जलवायु परिवर्तन कोई तेजी से होने वाली घटना नहीं है लेकिन यह वर्षा में विविधता ला सकता है। ये आपदाएं मुख्यतः पहाड़ों में अनियोजित, अनियंत्रित और बेतरतीब बुनियादी ढांचे के विकास के लिए किए जा रहे मानवीय हस्तक्षेप के कारण आ रही हैं।”
उन्होंने इसका उदाहरण देते हुए कहा कि नदियों में फेंका जाने वाला मलबा भी बाढ़ का कारण बन रहा है।
प्रदेश में ऐसे असंख्य उदाहरण दिए जा सकते हैं जहां विकास या अवैध कटान के नाम पर हजारों पेड़ काट दिए गए। पर्यावरणविदों का मानना है कि पेड़ों को अंधाधुंध तरीके से काटने के कारण राज्य में पर्यावरण का क्षरण हो रहा है जो प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से आपदाओं को निमंत्रण दे रहा है।
पर्यावरणविद सुरेश भाई ने दावा किया कि प्रदेश में चारधाम सड़क परियोजना के नाम पर करीब 50 हजार पेड़ काट दिए गए।
उन्होंने कहा, “जब एक पेड़ कटता है तो वास्तव में इससे तीन और पेड़ों को नुकसान पहुंचता है। हमारा मानना है कि वास्तविक रूप से चारधाम परियोजना से करीब दो लाख पेड़ प्रभावित हुए हैं।”
यहां तक कि चारधाम राजमार्गों पर सड़क चौड़ी करने के लिए अपनाए जा रहे तरीकों से भी विशेषज्ञ नाखुश हैं और उनका कहना है कि इससे भूस्खलन का खतरा बढ़ जाता है।
राज्य योजना आयोग के पूर्व सलाहकार हर्षपति उनियाल ने कहा, “मुख्य रूप से सड़क चौड़ी करने की गलत तकनीकों के कारण ये सड़के उत्तराखंड के लिए आपदाएं बन गई हैं। नदी घाटी संरेखण को सुरक्षित नहीं माना जा सकता। जब आप ढलानों को छेड़ेंगे तो भूस्खलन आना अवश्यंभावी है।”
भाषा दीप्ति