ब्रिटिश भारतीय सेना के विभाजन से सैनिकों को करना पड़ा था भावुक क्षणों का सामना
जोहेब सुरेश
- 15 Aug 2025, 03:34 PM
- Updated: 03:34 PM
(कुणाल दत्त)
नयी दिल्ली, 15 अगस्त (भाषा) वर्ष 1947 में हुए विभाजन ने न केवल एक राष्ट्र को दो अलग-अलग हिस्सों में विभाजित कर दिया, बल्कि ब्रिटिश नेतृत्व वाली भारतीय सेना का भी अंत कर दिया, जो भारत और पाकिस्तान के बीच विभाजित हो गई।
यह एक ऐसा कदम था जिसकी वजह से प्रशासनिक चुनौतियां पैदा हुईं और दूसरी तरफ जाने वाले सैनिकों को भी भावनात्मक क्षणों का सामना करना पड़ा।
विभाजन के समय अविभाजित भारतीय सेना के कमांडर-इन-चीफ रहे ब्रिटिश अधिकारी फील्ड मार्शल सर क्लाउड औचिनलेक ने सेनाओं के विभाजन की काफी हद तक देखरेख की थी।
चौदह-पंद्रह अगस्त, 1947 की मध्यरात्रि भारत के इतिहास में एक ऐसा क्षण था, जब एक राष्ट्र ने औपनिवेशिक शासन के बंधनों को तोड़ दिया और एक लंबे संघर्ष के बाद स्वतंत्रता प्राप्त की। प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के प्रसिद्ध 'ट्राइस्ट विद डेस्टिनी' भाषण में कहा, "एक राष्ट्र की आत्मा, जो लंबे समय से दमित थी, अब अभिव्यक्ति पा रही है।”
लेकिन, यह एक ऐसा अवसर भी था जो बड़े पैमाने पर पलायन और जल्दबाजी में किए गए विभाजन से पहले हुए रक्तपात की दर्दनाक यादें लेकर आया।
ब्रिटेनस्थित राष्ट्रीय सेना संग्रहालय (एनएएम) के अभिलेखीय दस्तावेजों के अनुसार, आधिकारिक विभाजन से पहले ‘‘अंतिम भारतीय सेना आदेश’’ 14 अगस्त, 1947 को जारी किया गया था।
एनएएम की वेबसाइट पर इस ऐतिहासिक आदेश की तस्वीर के साथ लिखा है, "भारत और पाकिस्तान के बीच सेना के विभाजन की देखरेख के लिए जिम्मेदार फील्ड मार्शल सर क्लाउड औचिनलेक और मेजर जनरल रेजिनाल्ड सेवरी ने ‘‘एडजुटेंट जनरल’’ के कार्यालय से जारी अंतिम आदेश पर हस्ताक्षर किए।’’
वेबसाइट पर कहा गया है कि ब्रिटिश नेतृत्व वाली भारतीय सेना का यह आदेश इतिहास की सबसे बड़ी स्वयंसेवी सेना के लिए अंतिम आदेश था।
औक के नाम से मशहूर फील्ड मार्शल औचिनलेक की विरासत भारत में जीवित है, और पुरानी दिल्ली स्टेशन पर एक सैनिक आरामगाह (सैनिकों के लिए विश्राम गृह) उनके नाम पर है।
थलसेना के साथ-साथ वायुसेना और नौसेना को भी स्वतंत्र भारत और नवगठित पाकिस्तान के बीच विभाजित कर दिया गया।
एनएएम की वेबसाइट के अनुसार, "लगभग 2,60,000 सैनिक भारत में रहे, जिनमें मुख्यतः हिंदू और सिख थे तथा 1,40,000 सैनिक पाकिस्तान गए, जिनमें मुख्यतः मुसलमान थे। नेपाल में भर्ती की गई गोरखा ब्रिगेड को भारत व ब्रिटेन के बीच विभाजित कर दिया गया।"
कई ब्रिटिश अधिकारी इस सहायता के लिए भारत में रुके रहे, जिनमें जनरल मैकग्रेगर मैकडोनाल्ड रॉबर्ट लॉकहार्ट भी शामिल थे। लॉकहार्ट ने 15 अगस्त 1947 से 31 दिसंबर 1947 तक भारतीय सेना के कमांडर-इन-चीफ के रूप में कार्य किया। जनरल फ्रैंक मेसेर्वी 1947 में पाकिस्तान सेना के गठन के बाद उसके पहले प्रमुख थे।
संग्रहालय के अनुसार, "व्यक्तिगत इकाइयों को विभाजित कर दिया गया। पाकिस्तान की 19वीं लांसर्स ने भारत की स्किनर हॉर्स से गए मुस्लिम सैनिकों के बदले जाट व सिख सैनिकों को भारत भेजा।"
लेकिन, ऐसे कई सैनिकों के लिए अपनी मातृभूमि से अलग होना आसान नहीं था। इसका अर्थ था उनकी राष्ट्रीयता और सैन्य पहचान में बदलाव होना।
पुराने रिकॉर्ड बताते हैं कि कई लोग सीमा पार जाने के इच्छुक नहीं थे।
सैन्य इतिहासकार एवं भारतीय वायुसेना के पूर्व अधिकारी स्क्वाड्रन लीडर (सेवानिवृत्त) टी.एस. छीना ने कहा कि अप्रैल 1947 में एक रक्षा समिति की बैठक में इस बात पर "विचार किया गया और सैद्धांतिक रूप से सहमति बनी" कि सशस्त्र बलों के विभाजन की योजना को "प्राथमिकता दी जानी चाहिए।”
उन्होंने ‘पीटीआई-भाषा’ से कहा, ‘‘यह कब शुरू हुआ, मुझे ठीक से पता नहीं है, लेकिन मुझे लगता है कि विभाजन की प्रक्रिया अगस्त 1947 के आसपास शुरू हुई होगी और सेनाओं को इस विभाजन के लिए बस कुछ महीने दिए गए थे।’’
दिल्ली में स्थित थिंक टैंक यूनाइटेड सर्विस इंस्टीट्यूशन ऑफ इंडिया (यूएसआईआई) के सैन्य इतिहास एवं संघर्ष अध्ययन केंद्र (सीएमएचसीएस) में कार्यरत छीना ने कहा कि ब्रिटिश भारतीय सेना में सैनिकों की भर्ती तथाकथित 'क्लास कंपनी प्रणाली' के आधार पर की जाती थी, जिसका अर्थ था कि कंपनियों में विशेष समुदायों, जैसे पंजाबी मुस्लिम, जाट या सिख होते थे, जबकि वायुसेना व नौसेना तकनीकी बल थे।
उन्होंने कहा कि मुस्लिम समुदाय के कई वरिष्ठ अधिकारियों ने भारत में ही रहने का विकल्प चुना, जैसे ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान।
उन्होंने कहा कि ब्रिगेडियर उस्मान को 1947-48 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान जम्मू-कश्मीर के नौशेरा में हुई लड़ाई में वीरता के लिए 'नौशेरा का शेर' की उपाधि मिली, लेकिन कई सैनिकों के पास "कोई विकल्प नहीं था" और उन्हें भारत छोड़ना पड़ा।
भारतीय सैनिकों के पाकिस्तान नहीं जाने के भी कई मामले थे और उनके लिए एक नए देश जाना बहुत ही भावुक क्षण था।
स्वतंत्रता के बाद, ब्रिटिश सेना की रेजिमेंट धीरे-धीरे उपमहाद्वीप से वापस बुला ली गईं। भारत छोड़ने वाली अंतिम इकाई फर्स्ट बटालियन, समरसेट लाइट इन्फैंट्री (प्रिंस अल्बर्ट) थी, जो 28 फरवरी, 1948 को बंबई से रवाना हुई।
फ्रांसिस रॉबर्ट रॉय बुचर 31 दिसंबर, 1947 से 15 जनवरी, 1949 तक भारतीय सेना के कमांडर-इन-चीफ रहे।
पंद्रह जनवरी, 1949 को जनरल के.एम. करियप्पा (बाद में फील्ड मार्शल रहे) सेना के पहले भारतीय कमांडर-इन-चीफ बने। पंद्रह जनवरी को सेना दिवस के रूप में मनाया जाता है।
बाद में सेना प्रमुख के पद का नाम बदलकर ‘चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ’ कर दिया गया।
भाषा जोहेब