गब्बर के अड्डे से बसंती के गांव तक, कर्नाटक के रामनगर में ‘शोले’ के 50 साल पूरे होने का जश्न
यासिर पारुल
- 15 Aug 2025, 07:47 PM
- Updated: 07:47 PM
नयी दिल्ली, 15 अगस्त (भाषा) ‘शोले’ की रिलीज को 50 साल का समय बीत चुका है, लेकिन फिल्म की रूह आज भी कर्नाटक के रामनगर जिले की पहाड़ियों में बसती है। भोले-भाले गांववालों पर गब्बर सिंह के जुल्म की दास्तां, जय-वीरू की जिगरी दोस्ती के किस्से और बसंती की कभी खत्म न होने वाली बातों का जिक्र आज भी यहां की फिजाओं में गूंजता है।
‘शोले’ ने 15 अगस्त 1975 को सिनेमाघरों में दस्तक दी थी। फिल्म का निर्देशन रमेश सिप्पी ने किया था, जबकि इसकी कहानी सलीम खान और जावेद अख्तर ने लिखी थी। ‘शोले’ में अमिताभ बच्चन, धर्मेंद्र, हेमा मालिनी, जया बच्चन, संजीव कुमार और अमजद खान मुख्य भूमिकाओं में नजर आए थे।
रामनगर में स्थित रामदेवरा बेट्टा इलाका ग्रेनाइट की पहाड़ियों वाला स्थान है और फिल्म में इसे काल्पनिक गांव रामगढ़ के रूप में दिखाया गया था।
रामदेवरा बेट्टा (कन्नड़ में पहाड़ी) के ऊबड़-खाबड़ इलाके को फिल्म में गब्बर सिंह के अड्डे के रूप में दर्शाया गया था। यह जगह बाद में हिंदी सिनेमा के सबसे मशहूर दृश्यों की शूटिंग का मंच बनी। इसी जगह एक सीन में खतरनाक डाकू गब्बर अपने साथियों से पूछता है, ‘‘कितने आदमी थे?’’
‘शोले’ की शूटिंग अक्टूबर 1973 में शुरू हुई थी, जो लगभग ढाई साल में पूरी हुई।
स्थानीय लोग आज भी कलाकारों और टीम की लगभग तीन साल की मौजूदगी को याद करते हैं। इलाके के कई लोगों को बैकग्राउंड कलाकारों के रूप में कैमरे के सामने आने का भी मौका मिला।
उनमें से एक बोरम्मा थी, जो केवल सात वर्ष की उम्र में फिल्म ‘शोले’ में एक छोटी-सी भूमिका के लिए कैमरे के सामने आई थी।
बोरम्मा ने ‘पीटीआई-भाषा’ को बताया, ‘‘मुझे आज भी सब कुछ याद है। आम के बागों में हेमा मालिनी और धर्मेंद्र पर जो दृश्य फिल्माया गया था, उसकी शूटिंग यहीं हुई थी। पहले वहां घना जंगल हुआ करता था, लेकिन फिल्म की शूटिंग के लिए उन्होंने उसे गांव में बदल दिया।’’
स्थानीय निवासी बेट्टाय्या ने बताया, ‘‘मैं उस समय 15 साल का था। मेरे माता-पिता सेट पर काम करते थे। मुझे शूटिंग के बारे में ज्यादा कुछ याद नहीं है, लेकिन वे हमें अच्छा खाना देते थे। धर्मेंद्र बुजुर्गों को 100 रुपये देते थे। बेट्टा तक जाने के लिए एक संकरी सड़क हुआ करती थी, लेकिन उन्होंने शूटिंग के लिए एक अच्छी कच्ची सड़क बनवाई। बाद में, वन विभाग ने उसे तारकोल की सड़क में बदल दिया।’’
भाषा यासिर