मातृ दिवस: महिलाएं जो कूड़ा बीनती हैं, परिवार चलाती हैं, पृथ्वी की रक्षा करती हैं
राजकुमार नरेश
- 11 May 2025, 07:42 PM
- Updated: 07:42 PM
(अपर्णा बोस)
नयी दिल्ली, 11 मई (भाषा) मातृ दिवस के दिन जब पूरे देश में मातृत्व के उपलक्ष्य में उपहार, कार्ड और शुभकामनाएं दी जा रही हैं, दिल्ली के विशाल शहरी क्षेत्र की गलियों में रहने वाली चार महिलाएं अपने दिन की शुरुआत आराम से नहीं, बल्कि अपने बच्चों, अपने समुदाय और (पृथ्वी) ग्रह के प्रति जिम्मेदारी के साथ करती हैं।
ज्योति, रेशमा, अनीता और शगुफा नामक ये महिलाएं राजधानी की अलग-अलग झुग्गी बस्तियों में रहती हैं और कूड़ा बीनती हैं। लेकिन वे जमीनी स्तर पर पर्यावरण संरक्षण के काम में जुटी हैं। वे अथक परिश्रम करती हैं, लेकिन शायद ही उन्हें कभी पहचान की दरकार होती है और शायद ही कभी सुर्खियों में आती हैं।
पुनर्चक्रण योग्य कूड़े को छांटने और एकत्र करने से लेकर घर-घर जाकर जागरूकता फैलाने और घरेलू हिंसा के पीड़ितों तक पहुंचने तक, शहर के विकास में उनका योगदान माताओं के रूप में उनकी भूमिका की तरह ही अथक है।
विवेकानंद कैंप में रह रही तथा पर्यावरण संबंधी संगठन चिंतन में काम करने वाली ज्योति ने ‘पीटीआई-भाषा’ से कहा, ‘‘ मैं रोज तड़के चार बजे जग जाती हूं। खाना पकाती हूं, लंचबॉक्स तैयार करती हूं। अपने बच्चों को स्कूल पहुंचाती हूं और फिर काम पर चली जाती हूं।’’
हालांकि, ज्योति का दिन कूड़ा बीनने के काम तक ही सीमित नहीं रहता। वह दोपहर का समय अपने बच्चों को स्कूल से लाने और उन्हें ट्यूशन भेजने में बिताती है। उसकी शाम घर के काम निपटाने में ही बीतती है।
ज्योति ने कहा, ‘‘तड़के चार बजे से रात 10 बजे तक मैं रुकती नहीं हूं। रविवार ही एकमात्र दिन है जब मैं अपने बच्चों के साथ समय बिताने के लिए छुट्टी लेती हूं।’’
पर्यावरण अनुसंधान और कार्रवाई संगठन चिंतन, ज्योति जैसी महिलाओं को समुदाय-आधारित कार्यों में शामिल करता है। उनमें से कई अपने पड़ोस में घर-घर जाती हैं, वे न केवल अपशिष्ट प्रबंधन और पर्यावरण संबंधी मुद्दों पर जागरूकता फैलाती हैं, बल्कि घरेलू हिंसा, अन्याय या चिकित्सा संकट का सामना करने वाली महिलाओं की मदद भी करती हैं।
भलस्वा डेयरी झुग्गी में रहने वाली 41 वर्षीय रेशमा ने कहा कि वह भी ऐसी ही जिम्मेदारियों को निभाती हैं, लेकिन उन्हें किसी साथी का सहयोग नहीं मिलता।
उन्होंने ‘पीटीआई-भाषा’ से कहा,‘‘मेरे पति ने मुझे बहुत पहले छोड़ दिया। मैंने अपने पांच बच्चों को अकेले ही पाला है।’’
उन्होंने यह भी कहा कि उनके केवल दो बच्चे ही स्कूल जाते हैं।
उन्होंने कहा कि जब वह चिंतन की परियोजनाओं में लगी होती हैं तो वह कूड़ा बीनने का कोई अन्य काम नहीं करती हैं। वह हाल ही में कम आय वाले घरों में ‘अंदर का तापमान’ कम करने के लिए ‘हीट सॉल्यूशंस’ पहल का भी हिस्सा थीं।
रेशमा ने ‘पीटीआई-भाषा’ को बताया,‘‘मैंने छतों को सफ़ेद रंग से रंगवाया और घरों को ठंडा करने के लिए बांस और जूट की चादरों का इस्तेमाल किया। मैंने 70 से 80 घरों के लिए ऐसा किया है। मैं केवल तभी छुट्टी लेती हूं जब मेरा कोई बच्चा बीमार हो। अन्यथा, मैं काम करती रहती हूं।’’
मातृ दिवस जैसे दिन पर किसी भी उपहार, कार्ड या प्रशंसा के बिना, ये महिलाएं बहुत अलग जीवन जीती हैं। इसके बजाय उनके पास जो बचता है वह है धैर्य, त्याग और शांति।
निजामुद्दीन के झुग्गी क्षेत्र में रह रही और इसी तरह का काम करने वाली वाली अनीता (40) ने कहा, ‘‘मेरे छह बच्चे हैं। उनमें से तीन स्कूल जाते हैं।’’
अनीता के पति ने उन्हें 15 साल पहले छोड़ दिया था और तब से वह अकेले ही अपने परिवार का पालन-पोषण कर रही हैं।
चिंतन के साथ उनके काम में सामुदायिक सर्वेक्षण, प्लास्टिक कचरा संग्रह और जागरूकता अभियान शामिल हैं। उन्होंने कहा, "हम इलाके की महिलाओं से बात करते हैं, उनकी समस्याएं सुनते हैं और उनकी मदद करने की कोशिश करते हैं। हम स्वास्थ्य, पर्यावरण और सुरक्षा के बारे में भी बात करते हैं।"
भाषा
राजकुमार