अदालत ने निर्वाचन आयोग के बाहर विरोध प्रदर्शन मामले में टीएमसी के 10 नेताओं को बरी किया
संतोष माधव
- 11 Jul 2025, 08:52 PM
- Updated: 08:52 PM
दिल्ली, 11 जून (भाषा) दिल्ली की एक अदालत ने निषेधाज्ञा के बावजूद देश के निर्वाचन आयोग के बाहर विरोध प्रदर्शन से जुड़े एक मामले में तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) के 10 नेताओं को बरी कर दिया है। अदालत ने कहा कि असहमति जताने के लिए किया गया प्रदर्शन लोकतंत्र की पहचान है।
अतिरिक्त मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट नेहा मित्तल ने कहा कि अभियोजन पक्ष यह साबित नहीं कर सका कि आरोपियों का जमावड़ा गैरकानूनी था और न ही वे यह साबित कर सके कि निषेधाज्ञा लागू होने के कारण उन्हें तितर-बितर होने का आदेश दिया गया था।
अदालत टीएमसी नेताओं डेरेक ओ’ब्रायन, मोहम्मद नदीमुल हक, डोला सेन, साकेत गोखले, सागरिका घोष, विवेक गुप्ता, अर्पिता घोष, शांतनु सेन, अबीर रंजन विश्वास और सुदीप राहा के खिलाफ आरोप तय करने पर अपना आदेश दे रही थी।
शुक्रवार को उपलब्ध कराए गए 10 जून के आदेश में अदालत ने कहा, ‘‘आरोपी व्यक्तियों के खिलाफ आरोप यह है कि वे आठ अप्रैल, 2024 को नयी दिल्ली स्थित भारत के निर्वाचन आयोग के मुख्य द्वार के सामने बिना अनुमति के विरोध प्रदर्शन कर रहे थे और उक्त विरोध प्रदर्शन ने एसीपी संसद मार्ग द्वारा 14 मार्च, 2024 को जारी उस आदेश का उल्लंघन किया, जिसके तहत किसी भी सार्वजनिक स्थान पर नारे लगाने या कोई प्रदर्शन या धरना आयोजित करने पर प्रतिबंध लगा दिया गया था।’’
अदालत ने कहा कि आरोपों के अनुसार, उन्होंने दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 144 के तहत निषेधाज्ञा लागू होने की चेतावनी के बावजूद विरोध प्रदर्शन जारी रखा।
अदालत ने कहा, ‘‘आरोपी व्यक्तियों के कृत्य की आपराधिक जिम्मेदारी को ध्यान में रखते हुए समझा जाना चाहिए कि असहमति व्यक्त करने के लिए किया गया मात्र विरोध प्रदर्शन न केवल लोकतंत्र की पहचान है, बल्कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) और (बी) (भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और शांतिपूर्वक एकत्र होने का अधिकार) के तहत प्रदत्त मौलिक अधिकार भी है।’’
अदालत ने कहा कि इस मामले में सवाल यह है कि क्या आरोपियों ने निषेधाज्ञा का उल्लंघन किया था, जो इन मौलिक अधिकारों पर एक उचित प्रतिबंध था।
अदालत ने कहा कि रिकॉर्ड में ऐसा कुछ भी नहीं है जिससे पता चले कि आरोपियों को एसीपी द्वारा जारी आदेश की जानकारी थी।
अदालत ने कहा, ‘‘हालांकि घटना की वीडियोग्राफी की गई है, लेकिन वीडियो में न तो दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 144 के तहत आदेश की घोषणा का कोई बैनर है और न ही लाउडस्पीकर/सार्वजनिक घोषणा (पीए) प्रणाली देखी जा सकती है।’’
अदालत ने कहा, ‘‘इस प्रकार अभियोजन पक्ष न तो प्रथम दृष्टया अभियुक्तों को दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 144 के तहत आदेश की सूचना दे पाया और न ही भारतीय दंड संहिता की धारा 188 (लोक सेवक द्वारा विधिवत जारी आदेश की अवज्ञा) के तहत उक्त आदेश के उल्लंघन के परिणामों की परिकल्पना कर पाया है।’’
अदालत ने कहा कि आदेश की जानकारी के अभाव में अभियुक्तों के एकत्र होने को गैरकानूनी जमावड़ा नहीं कहा जा सकता।
अदालत ने कहा, ‘‘अभियोजन पक्ष न तो यह साबित कर पाया है कि अभियुक्तों का जमावड़ा एक गैरकानूनी जमावड़ा था, न ही यह तथ्य कि आदेश जारी होने के बाद उन्हें तितर-बितर होने का आदेश दिया गया था।’’
इसमें कहा गया है कि प्रथम दृष्टया उनके खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 145 (यह जानते हुए भी कि उन्हें तितर-बितर होने का आदेश दिया गया है, गैरकानूनी जमावड़े में शामिल होना या उसमें शामिल होना) और धारा 34 (साझा इरादा) के तहत आरोप तय करने का कोई आधार नहीं है।
अदालत ने कहा, ‘‘सभी आरोपियों को बरी किया जाता है।’’
भाषा संतोष