नगालैंड आरक्षण नीति: पांच जनजातियों की समिति ने मंत्रिमंडल के फैसले की आलोचना की
सुमित नरेश
- 07 Aug 2025, 05:31 PM
- Updated: 05:31 PM
कोहिमा, सात अगस्त (भाषा) नगालैंड में आरक्षण नीति की समीक्षा को लेकर गठित पांच जनजातियों की समिति (सीओआरआरपी) ने राज्य मंत्रिमंडल के हालिया फैसले की कड़ी आलोचना करते हुए इसे 12 जून के फैसले की पुनरावृत्ति बताया जो उनकी मुख्य मांगों को पूरा करने में विफल रहा था।
सीओआरआरपी के संयोजक तेसिनलो सेमी और सदस्य सचिव जीके झिमोमी ने एक बयान के माध्यम से निराशा व्यक्त करते हुए कहा कि राज्य सरकार ने फिर से उनकी मुख्य चिंताओं को नजरअंदाज कर दिया और एक आरक्षण समीक्षा आयोग के गठन का फैसला किया जिसमें केंद्रीय नगालैंड ट्राइब्स कौंसिल, पूर्वी नगालैंड पीपुल्स संगठन और तेन्यिमी यूनियन नगालैंड जैसे नागरिक समाज संगठन शामिल हैं।
सीओआरआरपी की मुख्य मांगों में दशकों पुरानी आरक्षण नीति की समीक्षा के लिए संदर्भ शर्तें तय करना और एक स्वतंत्र आयोग का गठन करना शामिल है।
समिति ने आरोप लगाया कि सरकार द्वारा घोषित संरचना में तटस्थता का अभाव है तथा यह पक्षपातपूर्ण दृष्टिकोण को दर्शाता है।
उन्होंने मंत्रिमंडल बैठक के बाद मीडिया को संबोधित करते हुए सरकारी प्रवक्ता और मंत्री केजी केनये के बयान पर भी आपत्ति जताई।
केनये ने आधिकारिक आंकड़ों का हवाला देते हुए कहा था, ‘‘पांच गैर-पिछड़ी जनजातियों के पास वर्तमान में 64 प्रतिशत सरकारी नौकरियां हैं जबकि 10 पिछड़ी जनजातियों के पास केवल 34 प्रतिशत।’’
उन्होंने कहा कि इसी असंतुलन को दूर करने के लिए आयोग का गठन किया गया है, जिसकी रिपोर्ट छह महीने में अपेक्षित है। हालांकि उन्होंने यह भी जोड़ा कि इन सिफारिशों का कार्यान्वयन जनवरी 2026 में प्रस्तावित जाति आधारित जनगणना के आसपास हो सकता है।
सीओआरआरपी ने केनये की इन दलीलों को खारिज करते हुए कहा, ‘‘आरक्षण नीति के 48 वर्षों के पक्षपातपूर्ण बचाव और मनगढंत आंकड़ों के सहारे आयोग के गठन को अगली जनगणना से जोड़ना हमारे आंदोलन का अपमान है।’’
समिति ने शनिवार को कोहिमा में पांच शीर्ष जनजातीय संगठनों के साथ एक संयुक्त बैठक बुलाने की घोषणा की है, जिसमें आगे की रणनीति तय की जाएगी।
हाल ही में सीओआरआरपी के बैनर तले पांच जनजातीय शीर्ष समितियों द्वारा राज्य सरकार को एक संयुक्त ज्ञापन सौंपे जाने के बाद नगालैंड की आरक्षण नीति की समीक्षा के लिए दबाव बढ़ गया।
उन्होंने तर्क दिया कि 1977 से लागू यह नीति अब राज्य के विभिन्न समुदायों की वर्तमान सामाजिक-आर्थिक और शैक्षिक वास्तविकताओं को प्रतिबिंबित नहीं करती है।
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